Angraaj Karn Gatha | Mahabharat Karn Poem by Deepan

Angraaj Karn Gatha - Mahabharat Karn Poem

Mahabharat Karn Poem : Angraaj Karn Gatha This is the best poetry dedicated to Karn Gatha. The poem captures Karna’s virtues, struggles, and his complex relationship with various characters from the Mahabharata.

Title:Mahabharat Karn Poem : Angraaj Karn Gatha
Singer:Deepankur Bhardwaj
Source:Mahabharat
Language:Hindi
Genre:Poem

Angraaj Karn Gatha – Mahabharat Karn Poem by Deepan

भाल मेरा सूर्य सा
तेजमयी वर्ण है,
राधा मां का लाडला मैं
नाम मेरा कर्ण है।

शौर्य मेरा वीरभद्र सा
पांडवों का भाई था,
बाहुबल के समक्ष मेरे
महाबली जरासंध धराशाई था।

धर्म क्या अधर्म क्या
सबको मैं बताता हूं,
अपने जन्म से मृत्यु तक की
गाथा में सुनाता हूं।

ऋषि दुर्वासा से दिव्य मंत्र पाकर
माता कुंती प्रसन्न हुई,
अधीरता में पिता भास्कर का ध्यान किया
पुत्र पाकर वह धन्य हुई।

माता कुंती की गोद में मैंने
केवल कुछ वक्त ही गुजारा था,
कैसा अद्भुत वो क्षण था
जब मेरी जननी ने मुझको निहारा था।

अपने कनीना पुत्र के भविष्य का
मैया को स्मरण हो आया था,
तभी आंखो में अश्रु भरके मुझे
गंगा में बहाया था।

मुझे गंगा मां को सौंपने का
हर जन्म में मेरी मैया को अधिकार है,
और जो मेरी जननी को अपशब्द कहे
ऐसे प्रशंसक पर धिक्कार है।

अधीरथ बाबा और राधेय मां
मां गंगा से पाकर मुझको हुए खुशहाल थे,
वो केवल कृष्ण और कर्ण थे
जो दो मैया के लाल थे।

बड़े-बड़े कांटे मेरी आत्मा में
घुसकर सता रहे,
अरे मेरे सबसे पहले गुरू गुरू द्रोण को
लोग अहंकारी बता रहे।

ऊंच नीच जात पात का
कलंक ये लगा रहे,
जातिवाद जो कुछ सदियों से पनपा है
उसको सनातन इतिहास ये बता रहे।

जातिवाद नहीं था तब
सामर्थ्य अनुसार मनुष्य चुनता अपना वर्ण था,
संघर्ष तो था केवल इतना की
अधर्म से घिर चुका कर्ण था।

मेरे गुरु द्रोण को गाली दे कोई
ये मुझे कभी नही भाया था,
उसी परम पूज्य गुरु ने मुझे
धनुष पकड़ना सिखाया था।

गलती मेरी बड़ी थी बचपन से रहा
अधर्मी दुर्योधन के साथ में,
यदि पांडवों से लाग डांट छोड़ हृदय में धर्म होता
तो गुरु द्रोण थमा देते ब्रम्हास्त्र मेरे हाथ में।

अरे अभी भी नही देर हुई
संस्कृति को जानिए और ग्रंथ पढ़के आइए,
क्योंकि मेरे ही गुरु का अपमान करने वाले
मुझे निर्लज भक्त नहीं चाहिए।

जिस धृष्टद्युम्न की नियति ही वध थी उनका
उसको भी दी थी शिक्षा मेरे गुरु द्रोण ने,
पाप उनका भी था यही कि
दुर्योधन के अधर्म पर वो मौन थे।

भूल से सीख लेलो मेरी फिर से
मैंने भविष्य की सभी संभावनाओ को विफल किया,
एक गुरू को त्याग दिया
और जाकर दूसरे से छल किया।

गुरू परशुराम का श्राप
हम सबको ये सिखाता है,
छल और असत्य से प्राप्त ज्ञान
काम नही आता है।

मिला ज्ञान गुरु परशुराम से
पूरे आर्यावर्त में में नाम किया,
मेरे अतुलित शौर्य को स्वयं
जरासंध ने प्रणाम किया।

जब युद्ध मैं करता था तो
नवग्रह रुक जाते थे,
स्वयं नभ में पिता मेरे
तीरों से छुप जाते थे।

अरे सूर्य नारायण का अंश था
पर युद्ध में मैं रूद्र था,
अधर्मी मित्र का जो साथ था
तो हो चला तनिक उग्र था।

पर वचनों का मान रखा
कवच कुंडल को त्यागा था,
भास्कर पिता का परामर्श था
तो इन्द्र से शक्ति अस्त्र भी एक मांगा था।

मन ही मन प्रसन्न था कि
श्रेष्ठ मैं बन जाऊंगा,
इंद्र की वासवी शक्ति
उसके अंश पर चलाऊंगा।

पर संसार की है नियति
विजयश्री धर्म के हाथ आनी थी,
और वासवी शक्ति मुझे
पुत्र समान घटोत्कच पर चलानी थी।

महाभारत के उस रण को भी
शौर्य मेरा याद है,
भीम, सात्यकि जैसे योद्धाओं को भी चखाया मैंने
पराजय का स्वाद है।

स्वयं धर्मराज ने त्याग दिया
समक्ष मेरे युद्ध था,
रूद्र तांडव हो जाता था
जब होता सूर्यपुत्र क्रुद्ध था।

जीवन की अंतिम परीक्षा थी
सामने अनुज मेरा पार्थ था,
प्रेम और करुणा की मूरत था वो
ना मन में कोई स्वार्थ था।

विजयधारी कर्ण ने
अतुलित सामर्थ्य दिखलाया था,
मेरा रूप विक्राल देख
भीम और माधव ने उत्साह पार्थ का बढ़ाया था।

पर चक्र धरा में जा फंसा
विनाश मेरा अवश्यंभावी था,
और मेरा अधर्म उस दिन
मेरी वीरता पर हावी था।

मुरलीवाले ने धुरा रथ की थामी थी
और पार्थ ने चमत्कार किया,
मेरा शीश धरा पर गिर गया
ना किसी के श्राप का भी तिरस्कार किया।

मुझे मिले हर श्राप का मान रखकर
धर्म का बिगुल मेरे अनुज ने बजा दिया,
अधर्म के साथ खड़े भाई का शीश गिराकर
धर्मराज के शीश पर विजय मुकुट सजा दिया।

महाभारत सिर्फ काव्य नहीं
रिश्तों की गरिमा और जीवन का ये सार है,
धर्म अधर्म की पराकाष्ठा देखो
ज्ञान भरा इसमें अपार है।

अरे सनातन इतिहास में बेवजह
जातिवाद की त्रुटि क्यों मिलाते हो,
मुझसे तो चलो भूल हुई
तुम क्यों अधर्म से जुड़ जाते हो।

अरे मेरे अनुज, गुरू और माता का अपमान देख
आंखों में उतरता मेरी रक्त है,
और जो मेरे अपनों को अपशब्द कहे
क्या खाक मेरा भक्त है।

और जो मेरे अपनों को अपशब्द कहे
वो कभी ना मेरा भक्त है।

Angraaj Karn Gatha || A Poem about Real Mahabharat Karn 

Mahabharat Karn Poem: YouTube Video

निष्कर्ष

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